Sunday, March 27, 2011
बदलते रंग
रंगीन फूलों में
पार्क के झूलों में
बीता था बचपन हमारा;
पर फूलों की खुशबू से
गीतों के जादू से
दूर ज़िंदगी ने पुकारा.
मोटी किताबों ने
जूते-जुराबों ने
टाई-बेल्ट ने सपने बांधे;
भारी से बस्तों से
स्कूल के रस्तों पे
दुखते हैं नन्हे से काँधे.
नीले गगन में जो
उड़ते परिंदे तो
अपनी भी नज़रें ललचायीं
'चुपचाप पढ़ लो
यह सब याद कर लो',
फिर पापा ने डांट लगाई.
'जो न पढोगे
तो कैसे बढोगे
फिर कैसे करोगे तरक्की?
अगर कुछ भी पाना है,
जीवन सजाना है,
तो भैया, मेहनत है पक्की.'
नंबर तो अच्छे हैं,
पर हम जिनके बच्चे हैं
वो फिर भी ख़ुश तो नहीं हैं;
एक नंबर कटता है
तो वो भी खटकता है
हर वक़्त रहती कमी है.
ए.सी. लगाया,
कम्प्यूटर सजाया,
कोचिंग क्लासिज़ का है रेला;
पर न कोई खेल है,
न किसी से मेल है:
लगता है हरदम अकेला.
फिर इक सुबह आयी
जब हमने थी पायी
सोशल नेट्वर्किंग की दुनिया;
दोस्त मिले जी भर के,
साथी ज़िंदगी भर के:
लौट आयीं जीवन में खुशियाँ!
अब फार्मविल के फूलों में
सिटिविल के झूलों में
खिलता है जीवन हमारा;
स्टेटस बार पे हँसते हैं
तो स्माइलीज़ बरसते हैं:
झूमता है संसार सारा!
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